Description
समय के साँप ज़ब डसकर अपनी बॉबी में पलायन कर जाते हैं तब आँगन के बाइगीर अपने तूणीर से वाण निकालकर निकलते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस “आँगन के तूणीर” काव्य संग्रह की कविताएँ मानव की वेदना, इच्छा, कोमल भावनाओं, की एक अनकही कहानी कहती हैं, उसके मन को टटोलती हुई, उससे गुफ़्तगू करतीं हैं । अगर मनुष्य को वैराग्य की ओर नहीं ले जातीं हैं तो लिप्सा और भोग को भी पास नहीं भटकने देतीं। “आँगन के तूणीर ” काव्य लिखने का एक ही उद्देश्य है, कि हम कुछ भी नहीं हैं, न थे, न होंगे। हम सबकुछ हैं और इसी भ्रम में नदी के किस घाट पर लाकर पटक दिया जाए, हम खोजते रह जाएँगे…तुम देखने को भी नहीं आ पाओगे…अपने ख़ुद के बनाए राजमहल को.. जा लगे तेरे महला में आग…। समय के साँप ज़ब डसकर अपनी बॉबी में पलायन कर जाते हैं तब आँगन के बाइगीर अपने तूणीर से वाण निकालकर निकलते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस “आँगन के तूणीर” काव्य संग्रह की कविताएँ मानव की वेदना, इच्छा, कोमल भावनाओं, की एक अनकही कहानी कहती हैं, उसके मन को टटोलती हुई, उससे गुफ़्तगू करतीं हैं । अगर मनुष्य को वैराग्य की ओर नहीं ले जातीं हैं तो लिप्सा और भोग को भी पास नहीं भटकने देतीं। “आँगन के तूणीर ” काव्य लिखने का एक ही उद्देश्य है, कि हम कुछ भी नहीं हैं,न थे, न होंगे। हम सबकुछ हैं और इसी भ्रम में नदी के किस घाट पर लाकर पटक दिया जाए, हम खोजते रह जाएँगे…तुम देखने को भी नहीं आ पाओगे…अपने ख़ुद के बनाए राजमहल को.. जा लगे तेरे महला में आग…।
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