हिंदी के लोकप्रेय छंदों में कुण्डलिया छंद का विशेष महत्व है। कुण्डलिया जिस शब्द से आरम्भ होती है, उसी शब्द पर आ कर समाप्त भी होती है। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो कुण्डलिया आत्मा की यात्रा का एक पर्याय भी है; जिस स्रोत से आत्मा का उद्गम होता है, अंत में वह उसी स्रोत में समा जाती है। इसी कारण अधिकतर कुण्डलिया लिखने वालों ने इसे जीवन का सार लिखने में प्रयुक्त किया है। प्रस्तुत पुस्तक में कवयित्री ने इस छंद को लेकर एक नूतन प्रयोग किया है, इसे भगवान श्रीराम की सुंदर कथा कहने का माध्यम बनाया है। भक्ति-रस से भरपूर “राम रस भीनी कुण्डलियाँ” श्रीराम के जन्मोत्सव से आरम्भ होकर, उनके वनवास, रावण के साथ उनके युद्ध का वर्णन करते हुए उनके भव्य राज्याभिषेक पर सम्पूर्ण होती है। मूल-कथा की सीमा के भीतर हुए कवयित्री ने कहीं कहीं अपनी कल्पना को भी स्थान दिया है, जो इसे काव्य की दृष्टि से रुचिकर बनाती है।